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सोमवार, 14 अगस्त 2017

shabda-dhara: शब्द -धारा  (20) बुनियाद

shabda-dhara: शब्द -धारा  (20) बुनियाद: शब्द -धारा  (20) बुनियाद ******************** पूरे समर्पण से बनाये जाते हैं , मन्दिर, मस्जिद ,चर्च ,गुरुद्वारे, आत्मा -परमात्मा के ब...

शब्द -धारा  (20) बुनियाद

शब्द -धारा  (20) बुनियाद
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पूरे समर्पण से बनाये जाते हैं ,
मन्दिर, मस्जिद ,चर्च ,गुरुद्वारे,
आत्मा -परमात्मा के बीच  सेतु ,
आस्था के प्रतीक ये  सारे।

मीनारें हैं,सुनहरे कलश हैं
 आसमान की ऊँचाई है ,
गोल गुम्बद में गूंजती ,
आवाज़ की गहराई है।

बूटे-दार प्यारी जालियां,
पत्थरों में उकेरे प्रान,
विस्तृत आयाम में चित्र ,
इंसानी सोच की शान।

मगर फिर  -"ये मेरा है ,
ये इसका है ,
ये तेरा है क्या ?
अरे, ये उसका है।"

इनके जमीन से ऊगते  ही,
आदमी की कैसी बेकसी है ?
आखिर बुनियाद के पत्थर एक जैसे  -
नींव तो सबकी एक सी है।
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                           (C) keshavdubdy
                                स्वतंत्रता -दिवस,
                                    (15-8-2017)
                                 




शनिवार, 22 अप्रैल 2017

shabda-dhara: शब्द धारा (19) सपने

shabda-dhara: शब्द धारा (19) सपने:         शब्द धारा  (19)  सपने ******************* दुनिया  में हक़ीक़त के उस पार,  एक अलहदा  वज़ूद है अपना , दिखाई देने की इंतिहा होने पर ...

गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

शब्द धारा (19) सपने

सपने    













दुनिया  में हक़ीक़त के उस पार,
 एक अलहदा  वज़ूद है अपना ,
दिखाई देने की इंतिहा होने पर ,
बंद आँखे  दिखाती है सपना।

सपने  रंग -बिरंगे, दिखते-दिखते   ,
अक्सर  बे -नूर,बेरंग  हो जाते है,
कितने अरमान जगाकर सपने ,
खुद गहरी नींद में सो जाते हैं।

 प्यारा सपना, रुपयों की बरसात,
नोट छप्पर फाड़ के बरसते हैं,
शोर मचता है,तभी छापे की तरह.
जागकर, उसी नींद को तरसते हैं।

सपने मशहूर हैं आशिकी के  ,
आहें भरते,इश्क का पाठ पढ़ते हैं,
बस,नींद में गुंजाइश बची हैआजकल,
हकीकत में तो बे-भाव के पड़ते हैं।

,"चैन से सोना है ,तो जागते रहो -"
आम आदमी को सिखाया जाता है.
उसने खुद  देखना, कब का छोड़ दिया-
सपना तो उसे दिखाया जाता है।

एकाध सपना पूरा भी  होता है ,
अक्सर वो अधूरे रह जाते हैं ,
ख्वाहिशों के मेले में ख़ुशी तलाशते,
आवारा सपने बार -बार आते हैं।

आदमी जागते हुए भी देखता है ,
खुली आँख सपना दिखाती है ,
झूठा सपना दिन में देख लो फिर,
रात में अच्छी नींद आती है।

सपना,जिन्दिगी की परछाईं है,
सबूत है ,फैला हुआ आसमान है,
खुदी की बुलंदी ,पूरी कायनात है,
बेख़ुदी में जागा ,सारा जहान है.

सपनों से प्यार करो -ये अपने हैं,
खुशबू हैँ ,जिन्दिगी के बिखरे  रंग हैं,
लाख झूठे सही ,आपके अहसास हैं,
सांस की तरह ,आपके संग -संग हैं।
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                                (C) keshavdubey
                                          18-4-2017




















शनिवार, 21 जनवरी 2017

शब्द -धारा (18 ) बाज़ार बंद है।

शब्द -धारा   (18 ) बाज़ार बंद है। 
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सूरज ऊगा है ,मगर जाग नहीं  हुई है  ,
शहर ,खामोश सा, डरा -डरा सा पड़ा है ,
सन्नाटा क्यों है?चौराहे का बापू -पुतला ,
लठिया टेके ,कुछ मना करते, खड़ा हैं। 

झाड़ू फेरते हाथ, आज सड़कों से नदारद  हैं ,
भीतरी छोड़ो,ऊपरी सफाई  भी नंही हो रही,
हर आवाज़ का,शोर का, गला घोंटकर ,
अधनींदी सी खुसफुहट;जागती सी-सो रही। 

कल शहर की हर गली में मुनादी हो गई थी -
'कम -अक्लो,क्या तुम्हे जुल्म सहना पसंद है ?
मुल्क,कौम,बस्ती,ईमान, रवायत-खतरे में है,
कल मोर्चा खुलेगा,इसलिए बाज़ार बंद है।'

बैरियर पे खाकी -वर्दी तैनात है ,मुस्तैद है ,
एक जवान दूसरे रंगरूट को ये  सिखा रहा-
"लाठी, घुटने पे मारो,बस एक बार में फ्लैट",
लाठी भांजते,हुकूमत का आइना दिखा रहा। 

एक बूढ़ा- जवान, चुपचाप  खोया पुरानी याद में,
मुक़द्दर ने भी उससे क्या अजीब मज़ाक किया था , 
पिछले बंद में,वो बंद -सड़क पे लाठी ठोंकता रहा,
घर में उसके  बीमार बेटे ने दम तोड़ दिया था। 

सारी कठपुतलियों  की डोर थामे मुस्कराते अक्स ,
छुपे,बैठे ,सियासत के तराज़ू पे तौलते अवाम को,
गुर्गों के हुज़ूम का,तादात का, मोल -भाव कर रहे ,
 नोटों की पटरी पे सरपट  दौड़ाते सारे, इंतिज़ाम को.

"पांच सौ फी आदमी ? ये तो बहुत ज्यादा रेट है,
आखिर एक दिन बाज़ार ही तो बंद कराना है,
लाठी -वाठी खाने को ढेर सारी पब्लिक जो रहेगी ,
तुम्हें तो चुपचाप पीछे से , खिसक जाना  है। "

एक चापलूस गुर्गा कहता है  दबी जुबान से-
"माई -बाप, पहले हमें कम पैसों की दरकार थीं,
अब माइक से बाइक तक सब  महंगे हो गए,
फिर पिछले बंद में तो, आप ही की सरकार थी।"

बाज़ार बंद कराते, आखिर  लाठी -चार्ज हो गया,
होना ही था,टी.वी. की प्राइम -न्यूज़  बनाना था,
किसी एक की सियासत चमकाने की खातिर,
शहर की शोहरत पे बदनुमा दाग लगाना था।

कोहराम मचा था,भागते लोगों के सिर फूट रहे थे ,
बहकाई हुई  भीड़ को लाठी का प्रसाद मिल रहा था,
 चौराहे पे  गाँधी- पुतले का आशीर्वाद देता हाथ,
कांपता हुआ,जैसे "नहीं -नहीं "करते हुये,हिल रहा था। .

भीड़ में घायल एक बच्ची की, फटकर गिरी क़िताब,
जिसमें से 'ए फॉर ऐप्पल' झांक रहा था-ये कहते-
ए से जेड तक सारी अकल हासिल कर ली है तुमने ,
अब तो गाँधी -पुतले से "पाठ -1" सीख लो; समय रहते।
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                                                                   (C) keshavdubey
                                                                           20-1-2017

बुधवार, 23 नवंबर 2016

शब्द धारा (17) नोट का रंग

शब्द धारा (17) नोट का रंग 
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अंधेरे में दबा -छुपा नोट ,बेरंग बैठा था ,
तभी सूरज की किरन ने ,हिलाकर उठाया ,
वह इन्द्र -धनुष सा, बिखेरता अनोखी छटा,
लकदक स्याह लिबास में ऐंठा- इठलाया।

हाथ से फिसला, वो, जा गिरा उस चाय में ,
जो कड़क थी-हाथ के हुनर का था कमाल,
स्याह -सफ़ेद का खेल जब  अफ़साना  बना ,
तब  चाय की प्याली में मच गया धमाल।

नोट जब बाहर आया ,इक नए लिबास में ,
उसे लपकने वास्ते, हाय -तौबा मच गई,
तमाशा बन गए,खुद,तमाशा देखने वाले,
 पुराना चल बसा,उसकी निशानी बच गई।

पब्लिक परेशां है,बेचैन है,ग़मग़ीन है,बेज़ार,
नए -नवेले हमसफ़र के वास्ते है बेकरार ,
पांव  थककर चूर -चूर ,आँख भी पथरा गई ,
दीदार उस बेबफ़ा का,कब तलक ये इंतिज़ार ?

इक अलग सदमे में, दिल थामे हुए हैं चन्द लोग,
वो पुरानी गड्डियां ,वो मुकम्मल ,दिल पे बोझ ,
स्याह वो क्या हुआ -मुई, दुनिया अँधेरी हो गई ,
आ गया वो लम्हा ,जो आता क़यामत के रोज़।

मुल्क के गद्दारों की बोलती है आज बन्द ,
 दहशत -पसंदो पर हथौड़े सा पड़ा है एक नोट,
काला -बाज़ारों के ठीये पर,इक दिये की रौशनी ,
सौ सुनारी ठुक -ठुक पे, भारी- इक लुहारी चोट।

नोट छोटा हो गया है ,इसकी भी है इक वजह-
क्या छोटा होते -होते ये पूरा गायब हो जाएगा ?
अभी सब परेशां हैं, 'इन -लाइन' इसके वास्ते ,
अगला ज़माना जरूर- 'ऑन -लाइन' आएगा।

इस गुलाबी नोट की बड़ी  अजीब फितरत है ,
इसे चलते -फिरते रहना बहुतज्यादा  पसंद है ,
साँस घुटती है इसकी गड्डी में ,तिजोरी में ,
छटपटाता है, गर लाकर में ,अँधेरे में, बंद है।

वहाँ ये मारे गुस्से के,गुलाबी से लाल हो जाता है ,
लाल होना इसके गुस्से की अहम  पहचान है ,
क्या कहें ,समझदार को इशारा ही काफी है ,
लाल -सुर्ख रंग ,यक़ीनन खतरे का निशान है।
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                                          (C)   keshavdubey
                                                      22-11-2016                                        







सोमवार, 26 सितंबर 2016

SHABDA DHARA (16) Super Heroशब्द -धारा (16 ) सुपर -हीरो

शब्द -धारा (16 ) सुपर -हीरो  (Super Hero)
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रात के अँधेरे में घूमता एक रखवाला ,
वतन की सरहद पे गश्त लगाता है ,
गुमनाम रहता आखिरी सांस तक ,
शहीद होने पर सुपर -हीरो कहलाता है।
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सुपर हीरो की दो खास  नस्लें होती हैं ,
एक इतिहास के पन्ने में कैद रहती है,
दूसरी वो,जो फ्लैशलाइट से चमकती  हैँ ,
जो जमात, वक़्त की रफ़्तार में बहती है। 

चिराग घिसने से निकला सुपर हीरो ,
बेशक ,आसपास मज़मा जुटाता  है ,
उसे वक़्त, तराशता -निखारता है ,
या घिसकर  उसका मुल्लमा हटाता है।

स्क्रीन के हीरो करोड़ की सीढ़ी चढ़ते हैं ,
परदे के सिवा,हमेशा एक्टिंग करते हैं ,
जब रपटते हैं, तो हाय -तौबा मचाते हैं,
गुजरा जमाना याद कर ,आह भरते हैं। 

नेट की पैदाइश है ,नई पीढ़ी के  हीरो,
मियां -मिट्ठू हैं  खुद के वायरल के  ,
'लाइक 'की बाइक के फर्राटे में मगन ,
डिलीट हो जाते ,ये मेहमान पलभर के। 

रात के अँधेरे में घूमता एक रखवाला ,
वतन की सरहद पे गश्त लगाता  है ,
गुमनाम रहता है, आखिरी सांस तक,
शहीद होने पर, सुपर -हीरो कहलाता  है। 

छटे नेताजी भी सुपर -हीरो बनते हैं ,
-एक पुरानी कहानी इस तरह कहती है,
जिन्न की जान कैद थी ,एक तोते में -
नेताजी की, मतदान -पेटी में रहती है। 

छोटा सा  बच्चा जब तक अबोध रहता है ,
उसे पिता ही, सुपर-हीरो समझ में आता है ,
जैसे -जैसे बच्चे मे अकल आती जाती है ,
हीरो -हीरो मिटकर ,सुपर -सुपर रह जाता है।

कभी -कभी गौर से एक  आईना देखने पर ,
खुद का अक्स ,सुपर -हीरो नज़र आता है ,
अक्सर, अपनी बाहों का विश्वास खो देने पर ,
आईना ,फिसलकर -गिरकर ,दरक जाता है। 
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                                                   (C) keshavdubey
                                                           26-9-2016


 






 

बुधवार, 10 अगस्त 2016

शब्द-धारा (15) दी ग्रेट देसी सर्कस

दी ग्रेट देसी सर्कस
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"बैठ जा बताऊँ "गांव में ,
एक जबर सरकस आया है ,
अपने भानुमती -पिटारे में ,
वो गजब तमाशे लाया है।

सबसे पहले एक जादूगर आता है ,
सारे जिन्स गायब करता फरेब से ,
दाल ,प्याज, डालता अपने हैट में ,
नोटों के बंडल निकालता जेब से।

तार पर डगमग  थिरकती काया,
कम से कम कपडों में बैलेंस सम्हाले ,
ज्यादा से ज्यादा दिखती -लड़की है ,
सांस थामे देखते सब ,देखने वाले।

एक हाथ में वादों की रंगीन  छतरी,
दूसरे में सिर्फ बदनसीबी है ,
उम्मीद बरक़रार -हमेशा की तरह ,
 लड़की, जो रोप -ट्रिक करती- 'गरीबी' है।

ऊपर छत से लटकते लंबे झूले ,
हुनरमंद,बेख़ौफ़  गोता लगाते हैं ,
नियम ,कानून -कायदों को ,
सबको, मजे में ठेंगा दिखाते हैं।

टांग किसकी थामी जम्प मार के ,
कौन ख़रीदा हुआ ,कौन मेहरबान है ,
चूक गये तो फिकर की   बात नहीं ,
नीचे जाली है -कानून की दुकान है।

नॉसिखिए घोड़ों का बचकाना खेल ,
हंसिए मत,अभी ये बेचारे  नये हैं ,
ढाई- घर कूदते शातिर,  शतरंजी घोड़े-
बिकने केलिए, हॉर्स -ट्रेडिंग में गये हैं।


आए मरियल से हाथी रिंग में ,
सूँड़ से पूंछ तक एकदम बेजान ,
इनके दिखाने के दाँत, टूटे -फूटे थे ,
बेचारे छापा पड़ने से थे परेशान।

ये ख़ौफ़नाक खेल, पालतू  शेरों का ,
पब्लिक पर दहाड़ते,गुस्सा दिखाते हैं,
मिमियाते,दुम हिलाते उनके आगे ,
जो पर्दे के पीछे, टुकड़ा खिलाते हैं।

अब आता है आख़िरी सवाल, 
-जोकर का क्या इन्तजाम है?
ये सर्कस का अंगना ही जोक है,
इधर जोकर का क्या काम है?

इस नक्कारखाने में जोर से ,
या तो अपनी तूती बजाइए ,
या सिर झुकाकर बड़े  प्रेम से ,
हर गेम पे ताली बजाइये।

सर्कस का जमाना अब बीत चुका ,
ये तमाशा ,ना जाने कब मिटेगा ,
मुख़ौटे लगाये ,फरेबी हाथों से ,
अवाम, आखिर कब तक पिटेगा ?
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                         (C) keshavdubey
                                     8-8-2016
                        (http://shabda-dhara.blogspot.in)

    












गुरुवार, 7 जुलाई 2016

शब्दा-धारा (14 ) सपनों का हवामहल

 शब्दा-धारा (14 ) सपनों  का  हवामहल 

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बहुत  कम सपने हक़ीक़त बनते हैं ,
हक़ीक़त ज़रूर सपना बन जाती है ,
हक़ीक़त ओर सपनें का भेद मिटता है ,
जब कभी गहरी नींद आती है। 

गरीबदास सपने में देखता है, एक लाख ,
बस ,इतना देखना काफी है ,सही है ,
-जिन्दिगी के धोबी-पाट ने इतना पछाड़ा है ,
उसके सपनों पर भी सीलिंग लग गई है। 

एक लाख में ख़ुश होगा गरीब , गरीबदास ,
सपने में ऊपर वाले मालिक  के गुन गायेगा ,
कभी इस मुफ़लिस की पहचान थी दाल-रोटी ,
सपनों का अमीर, एक किलो दाल लाएगा। 

चालीस उमर  की हीरोइन सपने देखती है ,
अपनी निगाह में बीस की नज़र आती है ,
तभी दिखता है बीस में ,चप्पले चटकाता, अतीत ,
उमर ,पच्चीस -तीस पर अटक जाती है। 

अरबपति के सपने हाई -फाई होते हैं ,
-डेसीमल ,कितने जीरो के बाद लगाएं ,
किंग मिडास मरा सोने के निवाले से ,
"-हम ब्लैक -मनी कैसे हज़म कर जाएं ?"

गुरुजी रिटायर हुए ,फ़ंड के पांच लाख लेकर ,
सोचा ,एक पैसा छोड़ कर नहीं जाऊंगा ,
सपने में एक चादर दिखी अमेरिका -मेड ,
"-बस उसीमें बांधकर सब  ऊपर ले जाऊंगा। 

किसी नालायक के लिए कुछ नहीं छोड़ूँगा ,
पांच लाख की अमेरीकन चादर लाऊंगा ,
ख़्याल आया ,सब निपट जायेगा खरीदने में ,
-फिर गठरी में  बांधकर क्या ले जाऊँगा ?"

नेताजी सुख की  नींद सोये चुनाव ,के बाद ,
शपथ -ग्रहण से अभी-अभी लौटकर आए थे,
सपने में देखा , अचानक दल -बदल हो गया ,
वो पलटी मार गए ,जिनको पटाकर लाए थे।  

हाय देश -हित ,हाय गरीब ,हाय रे विकास ,
सपने में लहराती , विकास -गंगा की झांकी है ,
इस गंगा का उद्गम पकड़ पाया है,अब जाकर ,
किस सागर में मिलना है -अभी बाकी है। 

एक ,जागते हुए सपने देखता है ,
एक ,सुनहरे सपने की फसल बोता है ,
एक,सपने बेचता है,एक खरीदता है ,
एक ,बेखबर ,घोड़े बेचकर सोता है। 

ये जिन्दगी की डोर का अन -चीन्हा छोर है ,
बेशक ,सपनें ,हक़ीक़त में लंबी दूरी है ,
ये खुला आसमान है ,आदमी के वज़ूद का ,
बिना सपने के ये  जिन्दिगी अधूरी है। 
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                                              (C) keshavdubey
                                                     6-7-2016





सोमवार, 6 जून 2016

शब्द -धारा (१३ ) हमारे ज़माने में

                              (Environment Day :June 5)
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                          शब्द -धारा  (१३ ) हमारे  ज़माने में
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गुजरे ज़माने के दादू गुजर गए ,
सन्तानवे बरस की उमर पाई थी ,
सरकार पिंशन देते -देते थक गई ,
सौ पूरा करते: क्या करें ,मौत आई थी।

दादू प्राइमरी में ' एक्टिंग -हेडमास्टर' थे ,
"लिपिकीय -त्रुटिवश "एक्टिंग ही करते रहे ,
अपने ज़माने की बातों में खोए रहे ,
यादों के सुनहरे हवामहल गढ़ते रहे।

दादू उमर के साथ-साथ  सनक गए थे ,
उनके जैसे बूढ़े कुछ ऐसे ही रहते हैं ,
अकलवर ,"यस -सर "कहते, मुंडी हिलातेहैं ,
सनकी ,झक्की ,बेमौसम ,पते की बात कहते हैं।

लोग चौंके ,जब दादू अपनी वसीयत कर गए ,
"मेरी किताबें वजन में पचास किलो तक जायेंगी"
फक्कड़ गुरुजी नेआखिरी वसीयत में लिखा-
-"पॉलीथिन बैन है,रद्दी में अच्छी कीमत लायेंगी। ."

आगे लिखा-"बचा क्या है इस गरीब के पास -
जमीन सरकारी है ,अपनी तो हवा है ,पानी है ,
हवा में थोड़ा  जहर घुला ,पानी बोतल -बंद हो  गया ,
ये इंसानी तररकी की मुक़्क़मल निशानी है।

हमारा ज़माना यहाँ तक पहुँच चुका ,
सिर फूटने लगे हैं अब पानी के लिए ,
गहरी सांस मत लो ,ज्यादा प्रदूषण जाएगा ,
अरसा  बीत गया ,नदी का साफ पानी पिये।

गठरी बांध रखी आल -औलाद के लिये ,
लोग सात पुश्तों का इंतिजाम करते हैं ,
पानी की प्यास ,हवा का ज़हर भूल गये ?
भुगतना बेटा ,हम तो सफर करते हैं।

सोचो ,सौ -पचास साल में क्या होगा ?
बची -खुची हरियाली साफ हो जाएगी ,
तवे सी तपेगी, माँ धरती की छाती ,
पानी आंखों में,हवा बोतल -बंद आएगी।

पीढ़ी -दर पीढ़ी ज़माना बदलता रहता है ,
सब बातों के बहादुर   हैं -जाने -अनजाने में ,
काश ,आने वाली नस्लों को तोहफ़ा मिले-
धरती ,रहने लायक बनी ,हमारे ज़माने में।"
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                                                                              (C)    -Keshavdubey-
                                                                                         5 June 2016
                                                                                   







गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

शब्द -धारा (१२) गरीबों का सुपरबाजार

शब्द -धारा (१२)  गरीबों का  सुपरबाजार

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इधर  वसन्ती -बाई चौक में ,
गरीबों का सुपर-बाजार है ,
गरीबों की मदद के वास्ते,
शिद्दत से बैचैन है ,बेज़ार है।   

ये ख़ासियत है बाज़ार की ,
फिक्स है हर चीज़ का दाम ,
फिक्स रेट खरीदो,फिक्स रेट बेचो ,
माल चाहे बेशकीमत ,या हो बेकाम। 

सस्ता बाज़ार है,हर माल फिक्स रेट,
आबरू है तयशुदा,ईमान फिक्स रेट,
जुलूस एक भाव,गोली का एक रेट,
जान की कीमत? श्रीमान फिक्स रेट।

अंदर पूछते हैं -फटेहाल हो ,
भुखमरी के करीब हो ?
खानदानी मुफलिसी है -
या दो-नंबर के  गरीब हो ?

गरीबी का ठप्पा लग चुका ?
सबूत लाए हो साथ में ?
आखिरी खाना कब खाया था ?
पानी पिया था -पिछली बरसात में ?

हर मंज़िल का जगमग मंज़र,
दिल को लुभाता है ,
पैर ऊपरी सीढ़ी पर रखो तो ,
एस्क्लेटर नीचे जाता है।

गरीबी जाती चेंजिंग-रूम में,
नई साड़ी को फूल सी सम्हाले,
फटी धोती की लज़्ज़ा ,ग्लानि-बोध,
जैसे नए लिबास में मिटा डाले। 

आकर,आयाम,आरोह -अवरोह,
जांचते पूरा वज़ूद, सीसीटीवी  फुटेज में ,
गरीबी को कैफ़ियत, गहराई से नापेंगे ,
वही  दर्ज़ होगा सुपरबाजार -पेज में। 

इसके हर पहलू का नाप -जोख ,
सुपरबाजार -वाले आपस में बाटेंगे,
गरीबी के आंकड़े ,बुलंद ग्राफ,
शहद लगाकर प्यार से चाटेंगे।                                        

जन्नत -नशी वादों की बेवा- गरीबी,
यहाँ से 'दुरे -दुरे 'भगाते हैं ,
हाँ,पांच साल में एक बार जरूर ,
इलेक्शन -पर्व में, गले लगाते हैं। 
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                                           (C) keshavdubey
                                                20-4-2016
 






मंगलवार, 22 मार्च 2016

शब्द -धारा (!!) होली पे पॉलिटिक्स


                  शब्द -धारा (11) होली पे पॉलिटिक्स              

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कुछ इस कदर घुसी है दिमांगों में पॉलिटिक्स ,
हर चीज़ नज़र आती है ,दिन-रात पॉलिटिक्स
है  कुदरते -मेहर से दिमांगों  में रौशनी ,
 गोबर भरा हुआ,तो मालिक की पॉलिटिक्स।

लीडर की पूंछ पकड़े ,वो हुनरमंद है ,
इस खेल में ग़ैरत का, दरवाजा  बंद है ,
चिकने घड़े बिके ,गधे पर लदे हुए ,
और खुरदुरे घड़ों का बाज़ार मंद है।

लीडर में समझ है ,लीडर में सूझ है ,
लीडर की शान है ,लीडर की मूंछ है ,
क्या ख़ासियतहैआखिर, पब्लिक के जिस्म में?
-लीडर के पैने  सींग हैँ ,लीडर की पूंछ है।

मुई पॉलिटिक्स में देखिये, क्या गुल खिल गया ,
अपने हुए पराये ,फिर दोस्त मिल गया ,
अमरिकन फैशन का इक कोट सिल गया ,
कमीज़ उतर गई  ,जब दर्जी का बिल गया।

जंगी अदा से घूमते बस एक पैंट  में ,
चीनी मदद से यार का लँगोट सिल गया ,
लँगोट है सलामत -सारा जहान है ,
ये भी उतर गया तो फिर -----?

अपने गरेबां झांकिए,ये पॉलिटिक्स के रंग ,
जैसे किसी ने घोल दी ,हर बाबड़ी में भंग ,
जुगनू सी रौशनी में चमकते हैँ रहनुमा ,
वादों की बहादुरी है ,बातों की  छिड़ी जंग।

फैशन बना है बोलना ,अब मुल्क के ख़िलाफ़ ,
वो  बे -गैरत वज़ूद का खुद दे रहे हिसाब ,
माटी कंहाँ से आई -उनका  बदन बना ,
'-माता ' कंहाँ हैँ उनकी,  है कौन माई -बाप ?

इन्सान को तो वतन की मिट्टी  बनाती है ,
वो ही वज़ूद के ज़र्रे-ज़र्रे में समाती है,
सिरफिरे  बनते हैं ,हवा के एक  झोंके से ,
यक़ीनन, वो हवा कंही बाहर से आती  है।  


इस मर्ज़ का कुछ तो, साहिब  इलाज़ कीजिए ,
मुट्ठी में बंधी रेत ,फिसलने ना दीजिए ,
ये पॉलिटिक्स है दोमुँही तलवार की तरह ,
कुछ कीजिए ,कुछ कीजिए --या जाने दीजिए!

होली का रंग घोलकर माला पिरोइये,
सियासती फिज़ां में फिर सौ बार धोइये ,
लीडर की जै -जै बोलिये ,फिर पांच साल तक ,
आराम बड़ी चीज़ है ,मुंह ढँक के सोइये।
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                                                                                             =केशव दुबे =
                                                                                                     ( होली -2016)
                                                                                                  (keshavdubey.blogspot.com)

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

शब्द -धारा (10 ) मेरा प्यारा दुश्मन

 शब्द -धारा (10 ) मेरा प्यारा दुश्मन
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मैं तुम्हें जानता हूँ ,पहचानता हूँ ,
लंबी लाइन में तुम शुमार हो ,
खुश -आमदीद, तुम्हारा इक़बाल है ,
आखिर मुझसे मुलाकात को बेज़ार हो।

नफ़रत तुम्हारे दिल में है ,
दफ़न है कंही गहराई में ,
फूलों की चादर बिछा रक्खी है ,
कौन झांकेगा गहरी खाई में।

हाथ को हथियार से क्या वास्ता ,
नादां हैँ ख़ून बहाने वाले ,
मुस्कुराहट बिक रही बाज़ार में,
खरीद लेते हैं ,अज़ीज़ कहाने वाले।

सब दोस्त हैं ,सब खैरख्वाह हैं ,
खुशनुमा अहसास से प्यार देते हैं,
पाॉव को थामते सहारा देकर ,
वक्त -बेवक़्त लंगड़ी मार देते हैं।

दोस्ती का दम भरने वाले ,
अपने चेहरे नकाब में ढोते हैं ,
दुश्मन को मुल्लमे की ज़रुरत नंही ,
वो अपने ही अक्स में होते हैँ। 

ज़माने की रफ़तार के पेशे-नज़र ,
दोस्त भी शरीफ़ हैँ -दुश्मन भी ,
दिल चाहे जिसे, गले  लगाइये,
वक़्त का तकाज़ा है -मौसम भी।

ज़िन्दिगी, जीना नंही,महज़ एक्टिंग है ,
हर आदमी स्टेज पे नज़र आता है ,
गर डील  हो मुफ़ीद, मुकम्मिल हो,
दोस्त -दुश्मन का किरदार बदल जाता है।
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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

शब्द -धारा (9 ) मनी -प्लान्ट

                                        शब्द -धारा (9 ) मनी -प्लान्ट
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हमारी  गली  के नेता -श्री ,
एक साधू को लाये पकड़ ,
उसकी सेवा से प्राप्त की ,
अनोखी मनी -प्लान्ट की जड़।

जड़ रोपी अपने आँगन में ,
बड़े प्रयास से ,बड़े जतन से ,
सबकी नज़रों से बचाकर ,
उसे सींचा बड़े मन से।

पौधा बढ़ा,लम्बी हुई बेल ,
दीवार चढ़ी ,मुंडेर चढ़ी ,
इठलाती ,लहराती ,बलखाती ,
हरी -भरी बेल बढ़ीं।

मनी -प्लांट खूब बढ़ा ,
फल लगे -सचमुच की मनी ,
रुपया ,नोट ,सोना ,चांदी ,
वे बने दिनो -दिन धनी।

मनी -प्लान्ट की जड़ से
ऐसी कुछ क़िस्मत बनी ,
दोनों हाथ बटोरने लगे ,
वाइट ,येलो ,ब्लैक -मनी।

पर  हाय !ये क्या हुआ ?
बेल चढ़ी ,राह भटकी ,
पड़ोसी के आँगन पार ,
दीवार से बेल लटकी।

ये कैसा अनर्थ हुआ ,
कैसा ये अनाचार ,
प्लान्ट -प्लान्ट इधर बचा ,
मनी -मनी उस पार।

वे सींचें ,अगला माल काटे -
दिल पर सांप लोटने लगा ,
कलेजे में बरछी लगी ,
भले ही ,पड़ोसी था सगा।

पैसा तो आखिर  पैसा था ,
परम -आत्मा ,माया -जाल ,
बेशरम बेल ने फांदी मुंडेर ,
किया उन्हें हाल -बेहाल।

शराफत ताक पर रखी ,
नंही की कोई देर ,
चाकू से काटी बेल ,
ना रहे बेल ,ना चढ़े मुंडेर।

पौधा काटा तेज़ धार से ,
जड़ काटी एक वार से ,
चांदी के वर्क में लपेटा ,
पड़ोसी को भेंट किया प्यार से।

अब पड़ोसी सींचे ,बेल उगाये ,
मेहनत कर -करके मरे ,
जब बेल दीवाल फांदे तो ,
मोटे माल से उनका घर भरे।
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रविवार, 22 नवंबर 2015

***शब्द -धारा***(8)अंधी -दौड़

 **शब्द -धारा***(8)अंधी -दौड़

धरती  घूम रही ,
अब  ज्यादा  तेज ,
सब कुछ  'तत्काल ' है ,
-सुपरसोनिक -ऐज।


भागो ,गर गिर पड़ो ,
किसीकी खता नंही ,
किसकी तलाश है ,
यही तो पता नंही।


रुके ,दम ले,सांस ले ,
फुरसत कहाँ  है ,
शरीक इस दौड़ में ,
सारा जहाँ है। 

वक़्त की रफ़्तार में ,
तिनके सा बहे ,
मरने की फुरसत नंही ,
जीने की कौन कहे ?

सपनों का मायाजाल ,
सांसो से सिये ,
यहाँ बस दौड़ हैं ,
जिंदिगी कौन जिये।

सुख का स्वर्ण -मृग ,
खुशियों काअम्बार ,
भागों,शायद मिले ,
सात समन्दर पार।

नाम है,शोहरत है ,
दौलत,बरक्कत,है ,
फिर फुरसत से जी लेंगे-
अभी क्या दिक्कत है ?

भीड़ के सैलाब में ,
बहो-बहते रहो ,
'मैं' क़ो भुलाकर ,
'हम -हम 'कहते रहो।

पीछे मत देखो ,
मर चुका अतीत ,
रुका,वो मिट गया ,
जग की ये रीत।

अंधी ये दौड़ है,
किस्मत संवार दे ,
वो ही सिकन्दर है ,
लंगड़ी जो मार दे।

आकाश को छूता ,
मष्तिष्क का आयाम ,
धड़कन बरोबर है तो ,
दिल का क्या काम ?
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मंगलवार, 10 नवंबर 2015

शब्द -धारा (७ ) मैं मज़बूर हूुं डैड ---


डैडी, मैं  सुपरमोस्ट हूं ,
अगर फर्स्ट आता हूं ,
औ ऱ  पिछड़ गया तो ,
आपकी डांट खाता हूं।

मेरा प्रोग्रेस -कार्ड देखकर ,
आपने खूब डांट पिलाई ,
मगर अपनी पुरानी मार्क-शीट ,
मुझे कभी नंही दिखाई।

मैं  विनम्र बनू, आज्ञाकारी बनू ,
आप गुड-मैनर्स की बात कहे,
मम्मी -डैडी का महभारत हो ,
मग़र हम सुशील बच्चे रहें।

रात को चुपचाप सो जाऊँु ,
ना क़ुछ सुनूँ ,ना कुछ कँहू
आप कॉकटेल -पार्टी से लौटो ,
तब मैं  गहरी नींद में रहू।

फूली जेब में रखकर ,
आप बहुत कुछ छिपाते हो ,
क्या करुँ दिख जाता है ,
जो  मोटा  माल लाते हो.


मेरे लिए ऊँचे सपने देखे ,
इतने -इतने प्रयास किये।
मैंने  सपने सहेज रखे हैँ,
अगली पीढ़ी को ट्रांसफर के लिए।

गांधी, ,लिंकन के सदोपदेश ,
ये पढ़ना मुझको आता है,
मेरा दर्पण आप हो डैड ,
बाकी सब छुप जाता है।

महापुरषों की गाथाएँ ,
जीते जो जीवन-संघर्ष ,
क्या करुँ,मज़बूर हूं डैड ,
आप ही  हो मेरे आदर्श।

छोड़िए,आपने रटाया है-
अर्ली टू बेड एंड अर्ली टूराइज---
बतायेँ  मॉडर्न रूल क्या है -
टू बी हेल्थी,वेल्थी एण्ड वाइज।
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सोमवार, 13 दिसंबर 2010

शब्द -धारा (६ ) हंसी

                                          
                                    शब्द -धारा         (६ ) हंसी
                                    ^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^                                      
                                    
                   ठहाके मार के हंस सकना,            
                   आदमी को मिला वरदान है,
                  कोई दूसरा प्राणी नहीं हंस सकता,
                  यही प्रकृति का विधान है.

                 ख़ुशी की गठरी खोल के हँसना,
                आनंद,उत्साह,से खिलखिलाना
                सबके फटे में टांग फंसाना,
                हर हंसी में अपनी हंसी मिलाना.

                हम ख़ुशी-ख़ुशी रखते हैं,
                पराई मुसीबतों पर अपनी नज़र,
                भले ओंठो पर हो मातमी मरहम,
               दिल बल्लिओं कूदता है मगर.

             मौत का तांडव हो,आतंक का मर्सिया,
            गमगीन सूरते सामने आती हैं,
             भीड़ के करुण क्रन्दन में छुपी,
            कोई क्रूर आकृति मुस्कुराती है.

          जिंदगी खुशिओं से लबालब  भरी,
          हंसी जैसे छलकती रहती है,
          ऐसे भी चेहरे हैं,जिनकी हंसी,
          दो-चार को मार देती है.
                                                                       

         "हंसी अच्छे स्वस्थ्य की चाबी है"
          लोग ये नियम सिखाते हैं, 
          आजकल लॉफ्टर-क्लब हैं जहाँ,
          फीस लेकर हँसाते है,

        एक आईने के सामने देखिए,
        आहा! आप कितने सुन्दर लगते हैं ,
        पूछिए अपने आप से जरा-
        क्या आप खुद पर हंस सकते हैं?
        ****************************

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

शब्द -धारा (5) सबके दिल में


                  शब्द -धारा (5) सबके दिल में 


5

सबके दिल में सो रहा,

एक अबोध शिशु अनजान सा,

उसे सुलाए रखना कला है,

हुनर है इन्सान का.



अकल के अंधे कुए में,

आदमी फुदकता है,नाचता है,

एक झूठे अहसाह में डूबा,

दफ़न है दिल की दीवार में,

एक भोली सी मुस्कान,

बचपने को पोंछ कर,मिटा कर,

जैसे वही दुनिया को घुमाता है.



आदमी बनाता अपनी पहचान,



कोयल की बोली,हवा की लोरी,

तितली के पंख,तारों भरा आकाश,

बचपन के मोल बिक जाते,

युद्ध,आतंक और विनाश.



हिंसा और खून की फसल,

हम उगाते उम्र के साथ-साथ,

जब गढ़ते जिंदिगी के नए मायने,

वह बच्चा हँसता-सुनकर हमारी बात,



"नंही उल्टा सकते तुम समय-चक्र",

कहती है अन्दर की धक्- धक्,

सब कुछ हासिल कर लो मगर,

नंही छू सकते मेरी परछाई तक.

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रविवार, 29 अगस्त 2010

शब्द -धारा (4) प्रकति; एक शिशु

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        शब्द -धारा (4)  प्रकति; एक शिशु                                   
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अबोध बालक खेलता है,
खिलोने से,
प्रकति अपनी रचना से खेलती,
खुद बनाती,
खुद मिटाती, अपने खजाने को.

मुनिया,गुडिया को दुलारती,
फिर रूठकर फ़ेंक देती है,
प्रकति हमे गोद में बिठालती,
उतारती-
फिर उठा लेती है.,

गुडिया एक बच्चे का खेल है,
खिलवाड़ है.
आदमी प्रकति का खिलौना है,
अभी स्वर्णिम रचना,
अभी कबाड़ है.
                                                                                                
बच्चा क्यों बिफरता है,
कोई नंही जानता
कायनात के बदलते  रंग,
अबूझे ही रह जाते,
कोई नंही पहचानता,

लो गुडिया खुश हुई,
ओंठो पर हंसी आई,
लो प्रकति महकी,
सात रंगों में बिखरी,
छलकी,
मुस्कुराई.

प्रकति मालिक है,
अपनी मर्जी की
ना क्रूर-ना दयावान,
जितनी सर्वज्ञ है-
उतनी ही अबोध,
जैसे शिशु की मुस्कान.
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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

शब्द -धारा (3)शोर का समन्दर

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शब्द -धारा (2)शोर  का  समन्दर 



मैं  शोर के समंदर के बीच में हूँ,
आवाज़े तैर रही हैं
दर्द दुःख, चीख
तीखा संगीत,
आवाज़े -लहर जैसी ,
मुझसे टकराती हैं.

एक भयानक शोर,
ईश्वर के लिए,
जैसे वो बहरा हो,
इतना चीख पुकार
कि वो सुन पाए(?),
तो उसे चैन न मिले.

युद्ध- म्रत्यु का शांति-धाम,
गोलिये,बम, आकाश कांपता,
तीखा शोर अन्तरिक्ष  में भरा,
और शांति का क्रन्दन उतना ही तीव्र.

ख़ुशी, आनंद, पूरे जोर-शोर पर,
जीवन-तेज संगीत,
कर्कश आवाज़े कानो को पिघलाते स्वर,
जैसे मनोरंजन हो-अजायबघर.

मैं भागता हूँ,
किसी एकांत कोने में,
शांति की तलाश में,
शांत-एकदम शांत,
मगर यह क्या?-एक धीमा स्वर,
अन्दर से एक धक् -धक्,
मेरी आवाज़.

इस से प्यारी कोई आवाज़ नहीं,
यह मेरा जीवन-संगीत,
मगर इसे सुनने का समय कहाँ?
फुरसत कहाँ?
खुद से मुलाकात की!

मुझे अपने भीतर देखने से
डर लगता है,
अपनी आवाज़ भी,
आतंक का प्रतिरूप है
यह फुसफुसाहट जिसे सुनना असहनीय है.

यह प्यारी सी धक्- धक्,
प्रश्न चिन्ह बन जाती है,
मैं घबराकर वापिस चौराहे की ओर भागता हूँ,
ध्वनि के महासागर में,
डूबने-उतराने,
सरपट भागता हूँ.
**********************

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

शब्द -धारा (2 ) मेरे नर्क में

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                                                       **********शब्द -धारा (2 ) मेरे नर्क में****
मैंने ईश्वर को सच्चे ह्रदय से बुलाया,
घने अन्धकार में,
आर्तनाद किया,
  आवाज़ दी,

सच्चा समर्पण था,
सिर्फ एक प्रकाश-किरण के लिए,
आओ आलोकित करो,
आँखे मत फेरो.
उस परम शक्ति को पुकारा ,

प वित्र स्थानों,पूजा-ग्रहों,में,
जहाँ गया-आवाज़ लगाई.

सब पथो पर,
जो उसकी ओर जाते हैं-
आर्त प्राथना की.

मेरी सुध ली गयी,
फिर एक दिन-
प्रभु बोले-मैंने तेरी पुकार सुनी,
तेरा क्रन्दन सुना,

आ बालक आ-
तेरी प्राथना स्वीकार हुई,
ईश्वर अपने अंश को,
नंही भूलता.
आ मेरे पास आ,
आ जा.

मैंने घबरा- कर प्रतिवाद किय,
नह्णी-प्रभु नंही,
में तुम्हे बुलाता रहू पर-
तुम मुझे मत बुलाना..
मुझे मत बुलाना---
हे सर्व-शक्तिमान! तुम अपने स्वर्ग में खुश रहो,
मुझे धरती के नरक में,
रहने दो.
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                                                                             (C) keshavdubey


सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

शब्द -धारा (1) चलो परिभाषित करे

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      शब्द -धारा   (1)  चलो परिभाषित करे
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मेरी दो आँखे है,
और मैं देख सकता हूँ
कि सब एक्टर है,
और मैं?

मेरे दो कान है,
और मैं सब सुन सकता हूँ-
दिल की आवाज़ के अलावा,
जो इतनी पास है.

मेरा दिमाग है,
जो सोचता है,
सत्य अद्रश्य है,
-तो कौन अँधा है?

काम करने को ,
मेरे दो हाथ है,
जीवन रजिस्टर है,
तो मैं क्लर्क?

ये मेरे पैर है,
मैं भागता हूँ,
समय की छाया के पीछे,
आखिर ये race मज़ेदार है.

आपकी आस्था आपकी है,
और मेरी?--- मेरी,
क्यों दोनों का योग ऋणात्मक है,
 चलो परिभाषित करे.
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