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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

शब्द -धारा (3)शोर का समन्दर

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शब्द -धारा (2)शोर  का  समन्दर 



मैं  शोर के समंदर के बीच में हूँ,
आवाज़े तैर रही हैं
दर्द दुःख, चीख
तीखा संगीत,
आवाज़े -लहर जैसी ,
मुझसे टकराती हैं.

एक भयानक शोर,
ईश्वर के लिए,
जैसे वो बहरा हो,
इतना चीख पुकार
कि वो सुन पाए(?),
तो उसे चैन न मिले.

युद्ध- म्रत्यु का शांति-धाम,
गोलिये,बम, आकाश कांपता,
तीखा शोर अन्तरिक्ष  में भरा,
और शांति का क्रन्दन उतना ही तीव्र.

ख़ुशी, आनंद, पूरे जोर-शोर पर,
जीवन-तेज संगीत,
कर्कश आवाज़े कानो को पिघलाते स्वर,
जैसे मनोरंजन हो-अजायबघर.

मैं भागता हूँ,
किसी एकांत कोने में,
शांति की तलाश में,
शांत-एकदम शांत,
मगर यह क्या?-एक धीमा स्वर,
अन्दर से एक धक् -धक्,
मेरी आवाज़.

इस से प्यारी कोई आवाज़ नहीं,
यह मेरा जीवन-संगीत,
मगर इसे सुनने का समय कहाँ?
फुरसत कहाँ?
खुद से मुलाकात की!

मुझे अपने भीतर देखने से
डर लगता है,
अपनी आवाज़ भी,
आतंक का प्रतिरूप है
यह फुसफुसाहट जिसे सुनना असहनीय है.

यह प्यारी सी धक्- धक्,
प्रश्न चिन्ह बन जाती है,
मैं घबराकर वापिस चौराहे की ओर भागता हूँ,
ध्वनि के महासागर में,
डूबने-उतराने,
सरपट भागता हूँ.
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