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गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

शब्द -धारा (5) सबके दिल में


                  शब्द -धारा (5) सबके दिल में 


5

सबके दिल में सो रहा,

एक अबोध शिशु अनजान सा,

उसे सुलाए रखना कला है,

हुनर है इन्सान का.



अकल के अंधे कुए में,

आदमी फुदकता है,नाचता है,

एक झूठे अहसाह में डूबा,

दफ़न है दिल की दीवार में,

एक भोली सी मुस्कान,

बचपने को पोंछ कर,मिटा कर,

जैसे वही दुनिया को घुमाता है.



आदमी बनाता अपनी पहचान,



कोयल की बोली,हवा की लोरी,

तितली के पंख,तारों भरा आकाश,

बचपन के मोल बिक जाते,

युद्ध,आतंक और विनाश.



हिंसा और खून की फसल,

हम उगाते उम्र के साथ-साथ,

जब गढ़ते जिंदिगी के नए मायने,

वह बच्चा हँसता-सुनकर हमारी बात,



"नंही उल्टा सकते तुम समय-चक्र",

कहती है अन्दर की धक्- धक्,

सब कुछ हासिल कर लो मगर,

नंही छू सकते मेरी परछाई तक.

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